Holi 2023 : आधुकिता के इस दौर में बहुत सी परपंराएं अपना अस्तित्व खोती जा रही हैं, पर कुछ रीति-रिवाज ऐसे हैं, जो बड़े-बड़े झंझावातों के बीच भी अपने को बचाकर रखने में सफल रही हैं. उन्ही परंपराओं में एक है फाग या फगुआ काटना जिसे संवत काटना भी कहते हैं.
एरंड की डालियों पर खेर घास लपेटकर जलाते हैं
जनजातीय समाज और दक्षिणी छोटानागपुर के खूंटी, गुमला, लोहरदगा, सिमडेगा, सिंहभूम आदि जिले में गैर आदिवासियों द्वारा होलिका दहन की नहीं, फाग काटने की परंपरा है. फाल्गुन पूर्णिमा की रात को शुभ मुहूर्त में गांव के पाहन द्वारा सेमल या एरंड की डालियों पर खेर घास या पुआल लपेटकर उसे जलाया जाता है और जलती हुई डालियों को गांव के लोग तलवार या दूसरे धारदार हथियारों से काटते हैं.
धुएं की दिशा देखकर पाहन भविष्यवाणी करता है
Holi 2023 : पूजा के दौरान पाहन द्वारा पूजा- अर्चना के बाद मुर्गे की बलि दी जाती है. फाग जलने से उठने वाले धुएं की दिशा देखकर पाहन भविष्यवाणी करता है कि उस वर्ष वर्षा कैसी होगी और खेती-किसानी की स्थिति क्या होगी. फाग काटने के पूर्व रात को गांव के पुरुष और बच्चे सामूहिक रूप से नाचते-गाते फाग काटने वाले स्थान जिसे फगुवा टांड़ कहा जाता है.
पहला फाग काटने का अधिकार गांव के पाहन को ही
Holi 2023 : वहां पहुंचते हैं और पाहन द्वारा पूजा-अर्चना के बाद फाग या संवत काटते है. पहला फाग काटने का अधिकार गांव के पाहन को ही है. पाहन के बाद ही गांव के लोग संवत काटते हैं. दूसरे दिन अर्थात होली के दिन गांव के लोग ढोल-मांदर की थाप पर नाचते-गाते फगुवा टांड़ पहुंचते हैं और वहां की राख का लगाते हैं और दूसरे को भी भस्म का टीका लगाकर एक दूसरे को होली और नव वर्ष की शुभकामनाएं देते हैं.
फाग काटने को लेकर प्रचलित हैं कई किंवदंतियां
आमतौर पर होलिका दहन की कहानी राजा हिरण्यकश्यप और उसकी बहन होलिका से जुड़ी हुई है, पर छोटानागपुर के जनजातीय समाज इस धार्मिक मान्यता के अनुसार होलिका दहन नहीं करते हैं. आदिवासी बहुल ग्रामीण क्षेत्रों में होलिका दहन के लिए सेमल की डाली में खैर घास या पुआल लपेटकर पूजा- अर्चना और मुर्गे या भेड़, बकरे की बलि देने के बाद पूजा के दीप से ही उसमें आग लगाई जाती है.
सभी लोग डाली को धारदार हथियार से काटते हैं
Holi 2023 : जब डाली जलने लगती है, तब पाहन सहित गांव के सभी लोग डाली को धारदार हथियार से काटते हैं. इसे ही फाग काटना कहा जाता है. कर्रा प्रखंड के जोजोदाग गांव के हरि पाहन बताते हैं कि कबिला काल के समय जनजातीय समाज शिकार पर ही आश्रित था.